Saturday, January 15, 2011

दहक बाकी है

छलकते जाम पर इतराए  तू क्यों साकी है
बुझे  हुए इन  शोलो  में दहक बाकी है
सर पर है चाँद या की चांदनी तू इन पे न जा
तेरे संग चाँद पर जाने की हवस बाकी है
बहुत बरसें है ये बादल तो कई बरसों तक
फिर से आया है सावन की बरस बाकी है
दूर से आँख चुरा लेती है ,आँखे तो मिला
देख इन बुझते चिरागों में चमक बाकी है
हम तो थे फूल गुलाबों के बहुत ही महके
सूखने लग गए है तो भी महक बाकी है
भले ही शाम है और ढलने लगा है सूरज
छाई है दूर तक लाली कि चमक बाकी है

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