Friday, February 11, 2011

ऋतू संहार

                ऋतू संहार
कहा धरा ने ये सूरज से ,प्रिय सूरज जी
बहुत सताते हो हमको ,तुम्हारी मरजी
जब तुम होते दूर मुझे कुछ नहीं सुहाता
साथ तुम्हारा पाने तरस तरस मन जाता
ग्रीष्म ऋतू में आकुल व्याकुल दिल होता है
तुम्हारी उष्मा सहना  मुश्किल  होता है
जब करीब आते हो ,तन जल जल जाता है
मगर दूर रहना भी मन को खल जाता है
प्यास बुझाने आते ,बर्षा के मौसम में
पर बादल बाधा बन जाते मधुर मिलन में
आते हो कुछ देर के लिए ,छुप जाते हो
आँख मिचोली कर के मन को अकुलाते हो
और शिशिर में आस मिलन की जब जगती है
शीत लहर की चुभन, दग्ध तन को करती है
किन्तु तरसता रहता है मन तुम्हारे बिन
नहीं समय मिलता तुमको ,होता छोटा दिन
फिर आता है जब बसंत का मौसम प्यारा
मादकता से पुलकित होता तन मन सारा
होली का मदनोत्सव या  वेलेंटा इन डे
तुम्हारा सानिध्य तार छूता है तन के
प्यार लुटाते हो मुझ पर तुम जी भर भर जी
कहा धरा ने ये सूरज से ,प्रिय सूरज जी


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