Wednesday, May 18, 2011

एक प्यासे कौवे की कथा-एक सूखी गगरी की व्यथा

ओ बेदर्दी!ओ बेदर्दी!
तुमने अपनी प्यास बुझाली,लेकिन मेरी मुश्किल कर दी
ओ बेदर्दी! ओ बेदर्दी!
कौन गाँव और कौन ठांव से,आये थे तुम प्यासे कागा
भोली भाली कांव कांव सुन ,प्यार मेरे मन में भी जागा
प्यासी आँख बिसुरती देखी,सूखे पांख फड़कते देखे
आकुल व्याकुल तन मन देखा ,नैना नीर तरसते देखे
मुझको देख अकेला छत पर,मन ही मन थे तुम मुस्काये
चमक आ गयी थी आँखों में,सच तुम थे कितने हर्षाये
आये झटपट,उड़ कर छत पर,बैठे ,इधर उधर कुछ ताका
सहमे ,धीरे धीरे बढ़ कर,मेरे मन अंतर में झाँका
देखा जीवन,मेरे उर में,सूनापन और भरी जवानी
मेरी तब नादान उमर थी,था छिछला छिछला ही पानी
तुम्हारा  अपना मतलब था ,तुम को थी निज प्यास बुझानी
लेकिन प्यार समझ मै बैठी,ये मेरी ही थी नादानी
मैंने सोचा,मै माटी की गुडिया,क्षण भर जीवन मेरा
अगर किसी के काम आ सकूं, होगा पूर्ण समर्पण मेरा
फिर तुम्हारी, प्यार भरी नज़रों ने था बेचैन कर दिया
तुम उड़ जाते,प्यार जताते,चुग चुग लाते थे कांकरिया
तुम्हारी ये प्रेम भेंट पा,मेरा मन भर भर जाता था
मै विव्हल सी ,हो जाती थी,प्रेम नीर ऊपर आता था
कुछ पागलपन ,एसा छाया,हम दोनों का,धीरज टूटा
और एक पल एसा आया,तुमने मेरा ,सब कुछ लूटा
 इतनी भाव विभोर हुई मै,मुझको कुछ भी होंश नहीं था
थोड़ी गलती ,मेरी भी थी,तुम्हारा सब दोष नहीं था
मै तो सपनों में खोई थी,आँख खुली जब सपना भागा
देखा तो तुम चले गए थे,अपनी प्यास बुझा कर कागा
 पल भर को तो चोंक गयी मै,विरह वेदना में थी खोयी
बेदर्दी थी,याद तुम्हारी ,मै कितने ही ,आंसू रोयी
पर तुमको आना ही कब था ,लोभी थे,रस के ,अवसर के
मैंने अपने उर में झाँका ,केवल कंकर ही कंकर थे
इसी झूठन बना गए तुम,नहीं किसीने भी अपनाया
हाय अभागन,रही बिलखती,बचा खुचा सब नीर सुखाया
सब जीवन रस ,सूख चुका अब,रस की जैसे याद रह गयी
तुमने तो नव जीवन पाया ,पर मै तो ,बर्बाद रह गयी
तुम तो बुद्धिमान कहाए ,मै मूरख रह गयी बिलखती
तुमने अपनी प्यास बुझाली ,लेकिन मेरी मुश्किल कर दी
  ओ बेदर्दी! ओ बेदर्दी!

मदन मोहन बहेती'घोटू'

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