Tuesday, June 28, 2011

समुद्र मंथन

    समुद्र मंथन
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प्यार तुम्हारा
है अथाह सागर सा गहरा,
और मेरु पर्वत के जैसा ये मेरा मन
जब समुद्र  का  होता मंथन
चौदह रत्न  प्रकट दिखलाते
रूप तुम्हारा 'रम्भा' जैसा,
और चमकीली 'मणि' जैसी तुम्हारी आँखें
'इंद्र धनुष' सी छटा,
'चन्द्र' सा सुन्दर आनन,
'शंख' बजाते सांसों के स्वर
रूप 'हलाहल'
'वारुणी' जैसे अधर मुझे कर देते पागल
'कामधेनु'और 'कल्पवृक्ष' सी
मेरी सभी कामनाएं तुम पूरी करती
'धन्वन्तरी' सी,
दग्ध ह्रदय की पीड़ा हरती
प्रेम 'लक्ष्मी',जब मै साथ तुम्हारा पाता,
'एरावत' सा मत्त गयंद हुआ करता मन,
और 'उच्च्श्रेवा' घोड़े सी दोड़ लगाता
रूप मोहिनी सा धर आती
मुझे देवता समझ प्रेम से,
'अमृत'घट से ,घूँट सुधा की मुझे पिलाती
तो अमरत्व मुझे मिल जाता
तृप्त तृप्त सा हो जाता मन
चौदह रत्न मुझे मिल जाते
जब होता है समुद्र मंथन

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'


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